तक़दीर हाथ की लकीरों में नहीं, आपके हौसले में होती है



“हाथ की लकीरों पर मत जा ऐ इंसान,
तक़दीर भी उनकी होती है जिनके हाथ नहीं होते।”

यह पंक्तियाँ केवल कविता नहीं हैं, बल्कि जीवन का एक गहरा सत्य हैं। हम अक्सर सुनते हैं — “जो लिखा है, वही होगा। तक़दीर में लिखा नहीं तो क्या होगा?” मगर असली सवाल यह है कि तक़दीर लिखता कौन है? क्या सच में हमारी तक़दीर सिर्फ़ जन्म के साथ ही तय हो जाती है? या फिर हम अपने हौसले, मेहनत और संकल्प से उसे बदल सकते हैं?

सच तो यह है कि तक़दीर हाथ की लकीरों में नहीं, बल्कि आपके हौसले में होती है।

हम सबने अपने आसपास ऐसे लोगों को देखा है, जिन्होंने परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी कठिन क्यों न रही हों, अपने साहस और मेहनत से न केवल खुद की ज़िंदगी बदली, बल्कि दूसरों के लिए भी प्रेरणा बने। उनके लिए हाथ की लकीरों का कोई मतलब नहीं था। उनके लिए असली ताक़त थी — उनका हौसला।


हाथ की लकीरों का मिथक

हमारे समाज में वर्षों से यह धारणा गहराई से बैठी हुई है कि इंसान की तक़दीर उसके जन्म के साथ ही तय हो जाती है। हाथ की रेखाएँ देख-देखकर भविष्य बताने वाले पंडितों की कभी कमी नहीं रही। कई बार ये बातें हमें अपनी कमज़ोरियों और असफलताओं को छिपाने का एक बहाना देती हैं।

अगर मेहनत करने के बजाय हम यह मान लें कि “जो लिखा है, वही होगा,” तो फिर बदलाव की कोई संभावना ही नहीं रहती। असफलताओं का ठीकरा तक़दीर पर फोड़ना सबसे आसान रास्ता है। लेकिन क्या सच में यह सही है?

अगर तक़दीर ही सब कुछ है, तो कोई मेहनत क्यों करे? क्यों कोई रात-रात भर जागकर पढ़ाई करे? क्यों कोई बिज़नेस में रिस्क ले? क्यों कोई खिलाड़ी दिन-रात अभ्यास करे?

हकीकत यह है कि तक़दीर उन्हीं की बदलती है, जो उसे बदलने का हौसला रखते हैं।


हौसला ही असली तक़दीर है

हौसला ही वह चिंगारी है, जो किसी भी इंसान को आग की तरह जलाकर दुनिया रोशन करने का दम रखती है। बड़े-बड़े आविष्कार, महान खोजें, नए विचार, बड़ी-बड़ी इमारतें — सबके पीछे किसी न किसी इंसान का हौसला छिपा होता है।

  • हौसला कहता है — “मैं कर सकता हूँ।”
  • डर कहता है — “क्या होगा अगर मैं हार गया?”
  • तक़दीर कहती है — “जो लिखा है, वही होगा।”
  • पर हौसला कहता है — “मैं अपनी तक़दीर खुद लिखूँगा।”

इंसान का हौसला ही उसकी असली पूँजी है। जिसने इसे समझ लिया, वही अपने जीवन की दिशा बदल सकता है। इसके लिए कुछ प्रेरक उदाहरण देखिए।


निक वुजिसिक — हौसलों की उड़ान बिना हाथों के

निक वुजिसिक ऑस्ट्रेलिया के रहने वाले हैं। जन्म से ही उन्हें Tetra-Amelia Syndrome नामक दुर्लभ बीमारी थी, जिसके कारण उनके न तो हाथ हैं और न पैर। सोचिए, बिना हाथ-पैर के जीना ही अपने-आप में कितनी बड़ी चुनौती है। लेकिन निक ने अपनी शारीरिक कमी को कभी अपनी तक़दीर की सीमा नहीं बनने दिया।

लोगों ने उन्हें बचपन में ताने मारे। स्कूल में उन्हें बुली किया गया। यहाँ तक कि निक ने कई बार आत्महत्या के बारे में भी सोचा। लेकिन एक दिन उन्होंने निश्चय किया कि वे अपनी कहानी दुनिया के सामने रखेंगे और दूसरों को प्रेरित करेंगे।

आज निक वुजिसिक एक प्रसिद्ध मोटिवेशनल स्पीकर, लेखक, और इंटरनेशनल ट्रेनर हैं। वे 70 से ज्यादा देशों में लाखों लोगों को संबोधित कर चुके हैं। उनके सेमिनारों में लोग रोते हैं, हँसते हैं, और एक नई उम्मीद के साथ लौटते हैं।

निक की मशहूर पंक्ति है:

“अगर मैं बिना हाथ-पैर के खड़ा हो सकता हूँ, तो तुम भी अपनी ज़िंदगी में किसी भी मुश्किल के सामने खड़े हो सकते हो।”

निक का जीवन इस बात का सजीव प्रमाण है कि तक़दीर हाथ की लकीरों में नहीं, आपके हौसले में होती है।


डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम — भारतीय माटी का उदाहरण

भारत के मिसाइल मैन और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का नाम कौन नहीं जानता? तमिलनाडु के रामेश्वरम जैसे छोटे-से गाँव में जन्मे अब्दुल कलाम का बचपन गरीबी में बीता। उनका परिवार इतना गरीब था कि उन्हें अखबार बाँटकर अपने पढ़ाई के खर्चे जुटाने पड़ते थे।

लेकिन उनके भीतर हौसला था। सपने बड़े थे। परिस्थितियों ने उन्हें कभी झुकने नहीं दिया। उन्होंने भौतिकी और एयरोस्पेस इंजीनियरिंग की पढ़ाई की।

वे ISRO और DRDO जैसी संस्थाओं में अहम पदों पर रहे। भारत के मिसाइल प्रोग्राम को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। पोखरण में परमाणु परीक्षण की सफलता में उनका अहम योगदान रहा।

एक गरीब मछुआरे का बेटा, भारत का राष्ट्रपति बना। दुनिया भर में उनका सम्मान हुआ। उनकी किताबें आज भी करोड़ों युवाओं को प्रेरणा देती हैं। उन्होंने खुद कहा था:

“सपने वो नहीं होते जो हम सोते वक्त देखते हैं, सपने वो होते हैं जो हमें सोने नहीं देते।”

क्या उनकी तक़दीर पहले से लिखी थी? नहीं। उनका हौसला ही उनकी तक़दीर लिख रहा था।


असली ताकत है ‘करने का जज़्बा’

हमारे समाज में कई लोग हाथ की लकीरें दिखाकर भविष्य बताते हैं। लेकिन जो लोग इतिहास बदलते हैं, वे हाथ की लकीरें देखने में वक्त बर्बाद नहीं करते।

  • वो अपनी लकीरें खुद खींचते हैं।
  • वो अपने रास्ते खुद बनाते हैं।
  • वो तक़दीर का इंतज़ार नहीं करते, तक़दीर को अपने पीछे चलाते हैं।

इसीलिए किसी भी मुश्किल वक्त में अपने आप से एक ही सवाल पूछिए:

क्या मैं कोशिश कर रहा हूँ? या सिर्फ़ तक़दीर के भरोसे बैठा हूँ?

जब तक आप कोशिश करेंगे, तब तक आपकी हार संभव नहीं। हार तब होती है, जब आप कोशिश करना छोड़ देते हैं।


तक़दीर बदलने का तरीका

अगर आप चाहते हैं कि आपकी तक़दीर बदले, तो ये कदम उठाइए:

सोच बदलिए।
तक़दीर का खेल दिमाग से शुरू होता है। सकारात्मक सोच आपके रास्ते खोलती है।

हार मानना छोड़ दीजिए।
कोई भी असफलता आखिरी नहीं होती। निक और कलाम साहब ने कितनी ही असफलताएँ देखीं।

कड़ी मेहनत कीजिए।
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। मेहनत ही तक़दीर बदलती है।

अपने आप पर भरोसा रखिए।
दुनिया चाहे कुछ भी कहे, जब तक आप खुद पर भरोसा रखते हैं, आप जीत सकते हैं।

मंज़िल पर नजर रखिए।
रास्ते में मुश्किलें आएँगी ही, लेकिन आँखें मंज़िल पर रहें तो कदम लड़खड़ाएँगे नहीं।


निष्कर्ष

दोस्तों, जिंदगी की सच्चाई यही है कि तक़दीर हाथ की लकीरों में नहीं होती, आपके हौसले में होती है।

  • अगर निक वुजिसिक बिना हाथ-पैर के खड़े हो सकते हैं…
  • अगर अब्दुल कलाम रामेश्वरम की गलियों से निकलकर राष्ट्रपति भवन तक पहुँच सकते हैं…

तो आप भी अपनी तक़दीर खुद लिख सकते हैं।

लकीरों को देखने के बजाय, मेहनत करो। तक़दीर खुद चलकर आएगी। याद रखो:

“तक़दीर बदलती है, लेकिन पहले इंसान को बदलना पड़ता है।”



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