“रिश्ते से अपेक्षा रखना स्वार्थ नहीं है”

 


रिश्ते से अपेक्षा रखना स्वार्थ नहीं है

(एक सामाजिक, भावनात्मक और मानवीय दृष्टिकोण)

भूमिका

हमारे जीवन की सबसे सुंदर और आवश्यक संरचनाओं में से एक है – रिश्ता। यह एक ऐसी डोर होती है, जो दो लोगों को आपसी विश्वास, प्रेम, सम्मान और समझदारी से जोड़ती है। माता-पिता और संतान, पति-पत्नी, भाई-बहन, मित्र या कोई भी आत्मीय संबंध – सब रिश्ते ही तो हैं। लेकिन जब कोई इन रिश्तों से कुछ अपेक्षा करता है, तो समाज के कुछ वर्ग इसे “स्वार्थ” की दृष्टि से देखता है।

प्रश्न यह है कि – क्या किसी से अपनेपन, आदर, समझ, या सहयोग की अपेक्षा करना वास्तव में स्वार्थ है?
उत्तर है – बिलकुल नहीं।
बल्कि यह अपेक्षा ही तो उस रिश्ते को जीवंत बनाए रखती है।


अपेक्षा क्या है?

अपेक्षा एक स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है। जब हम किसी के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ते हैं, तो यह स्वाभाविक है कि हम उससे कुछ सकारात्मक व्यवहार की उम्मीद रखें। जैसे कि –

  • माँ-बाप अपने बच्चों से समय पर बात करने और आदर की अपेक्षा करते हैं।
  • पति या पत्नी एक-दूसरे से प्रेम और समझ की अपेक्षा करते हैं।
  • एक मित्र कठिन समय में अपने मित्र से सहारे की अपेक्षा करता है।

इन अपेक्षाओं में कोई लालच या स्वार्थ नहीं होता। ये सिर्फ यह दर्शाती हैं कि वह रिश्ता हमारे लिए मायने रखता है।


रिश्तों में अपेक्षा क्यों ज़रूरी है?

रिश्तों में अपेक्षा एक सजीवता बनाए रखती है। यदि किसी रिश्ते में कोई अपेक्षा ही नहीं है, तो वह सिर्फ एक औपचारिक संबंध बनकर रह जाता है। आइए देखें कैसे:

  1. भावनात्मक जुड़ाव की पुष्टि:
    जब हम किसी से उम्मीद करते हैं कि वह हमारी बात सुने, समझे या साथ दे, तो यह दर्शाता है कि हम उसके साथ भावनात्मक रूप से जुड़े हैं। यह जुड़ाव अपेक्षा के बिना संभव नहीं।

  2. संबंध में संतुलन:
    एकतरफा रिश्ता कभी टिकता नहीं। अगर एक व्यक्ति हमेशा देता ही रहे और दूसरा सिर्फ लेता रहे, तो वह रिश्ता असंतुलित हो जाएगा। अपेक्षा रिश्ते को दोतरफा बनाती है।

  3. आपसी समझ का विकास:
    जब हम अपने मन की बात कहते हैं और सामने वाले से उत्तरदायित्व की अपेक्षा रखते हैं, तो इससे आपसी संवाद बढ़ता है। यह संवाद ही समझदारी की नींव बनाता है।


अपेक्षा और स्वार्थ में अंतर

स्वार्थ वह होता है जहाँ हम सिर्फ अपने लाभ की बात सोचें, भले ही सामने वाले को नुकसान क्यों न हो जाए। जबकि अपेक्षा में हम सामने वाले की भावना, सीमा और परिस्थिति का भी ध्यान रखते हैं।
उदाहरण के लिए:

  • कोई मित्र जब किसी मुसीबत में आपकी मदद माँगता है, तो वह स्वार्थ नहीं, बल्कि रिश्ते की अपेक्षा है।
  • एक पत्नी जो चाहती है कि उसका पति दिन का थोड़ा सा समय उसके साथ बिताए, यह उसका हक है, स्वार्थ नहीं।
  • एक वृद्ध पिता जो चाहता है कि उसका बेटा साल में एक बार उसके पास आकर कुछ समय बिताए – यह कोई लालच नहीं, बल्कि हृदय की पुकार है।

स्वार्थ में केवल "मैं" होता है, अपेक्षा में होता है "हम"।


अगर कोई अपेक्षा न करे तो?

कल्पना कीजिए कि किसी रिश्ते में दोनों लोग एक-दूसरे से कोई अपेक्षा ही न रखें।

  • ना बात करने की जरूरत,
  • ना सहयोग की चाहत,
  • ना साथ बैठने की इच्छा।

तो क्या वह रिश्ता जीवित रह पाएगा?

शायद नहीं।
ऐसे रिश्ते एक दिन औपचारिकता में बदल जाते हैं – जहाँ बस नाम के लिए जुड़ाव होता है, लेकिन भावना का कोई स्थान नहीं होता।


सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ में अपेक्षा

हम भारतीय समाज में पले-बढ़े हैं जहाँ रिश्तों को धर्म के समान माना जाता है।

  • राम-भरत का भाईचारा,
  • श्रवण कुमार की मातृ-पितृ भक्ति,
  • सुदामा-कृष्ण की मित्रता —
    इन सभी में एक-दूसरे के प्रति अपेक्षाएं थीं, और उन अपेक्षाओं को निभाना ही रिश्ते की सच्ची पूजा थी।

यह कहना कि “मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिए” — यह संभव तो है, लेकिन बहुत कठिन भी है। क्योंकि मनुष्य अकेला नहीं जी सकता। उसे जुड़ाव चाहिए, संवाद चाहिए, सहारा चाहिए। और ये सब अपेक्षा से ही तो उपजते हैं।


आधुनिक युग में अपेक्षा का स्थान

आजकल की व्यस्त जिंदगी में रिश्तों का स्वरूप थोड़ा बदल गया है। लोग मोबाइल, सोशल मीडिया और करियर में इतने व्यस्त हो गए हैं कि संबंधों में संवाद कम होता जा रहा है। ऐसे में जब कोई थोड़ा-सा समय या ध्यान चाहता है, तो उसे “ज़्यादा मांगने वाला” कह दिया जाता है।

यह विचारधारा खतरनाक है। क्योंकि अगर हम रिश्तों से उम्मीदें खत्म कर देंगे, तो आने वाली पीढ़ी के लिए यह संदेश जाएगा कि “रिश्ते बस नाम के लिए हैं, भावना की कोई जरूरत नहीं।”

हमें यह समझने की जरूरत है कि अपेक्षा एक बोझ नहीं है, बल्कि रिश्तों की आत्मा है।



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