परिवार के मुखिया और बड़ों को सम्मान क्यों देना चाहिए?
सुंदरकाण्ड की प्रेरणा – परिवार के मुखिया और बड़ों को सम्मान क्यों देना चाहिए?
"मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव।"
(तैत्तिरीय उपनिषद्)
आज हम एक ऐसे प्रसंग की चर्चा करने जा रहे हैं, जो न केवल हमारे धार्मिक ग्रंथों में दर्ज है, बल्कि हमारे जीवन के मूल्यों, परिवार के संस्कारों और समाज के आधारभूत ढांचे को भी परिभाषित करता है। मैं बात कर रहा हूँ – रामचरितमानस के सुंदरकाण्ड की, और विशेष रूप से उस प्रसंग की जहाँ हनुमान जी और विभीषण जी का संवाद होता है।
यह प्रसंग केवल वीरता, चातुर्य और भक्ति की कहानी नहीं है, बल्कि यह हमें यह भी सिखाता है कि परिवार, समाज और राष्ट्र में बड़ों का क्या स्थान होता है, और क्यों उनका सम्मान किया जाना चाहिए।
सुंदरकाण्ड – शौर्य नहीं, संस्कारों की शिक्षा भी है
जब हम "सुंदरकाण्ड" कहते हैं, तो आमतौर पर हमारी स्मृति में हनुमान जी की समुद्र लांघने की वीरता, लंका में आग लगाने की घटना, या सीता माता को राम का संदेश पहुँचाने का कार्य आता है।
लेकिन एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रसंग इससे भी बढ़कर है—हनुमान जी और विभीषण जी का संवाद।
लंका जैसे राक्षसी वातावरण में भी जब हनुमान जी को एक सज्जन पुरुष – विभीषण – दिखाई देते हैं, तो वह बिना किसी पूर्वग्रह के उन्हें सम्मान देते हैं, उनकी बात ध्यान से सुनते हैं, और यहाँ तक कि उन्हें रामभक्त मानकर श्रीराम की शरण में ले जाने की सिफारिश भी करते हैं।
सोचिए –
हनुमान जी, जो स्वयं महाशक्तिशाली हैं, प्रभु के दूत हैं, उन्हें किसी की सिफारिश की आवश्यकता नहीं थी।
लेकिन उन्होंने अपने से बड़े, अनुभव में श्रेष्ठ और नीति के पक्षधर विभीषण जी को भरपूर सम्मान दिया।
परिवार में बड़ों की भूमिका – विभीषण के दृष्टिकोण से
विभीषण जी, रावण के भाई थे – लेकिन वे जानते थे कि जो गलत है, उसका साथ देना पाप है।
उन्होंने कई बार अपने बड़े भाई रावण को समझाया कि वह सीता माता को लौटा दे, धर्म के मार्ग पर लौट आए। लेकिन जब रावण नहीं माना, तो विभीषण ने किसी विरोध के बिना घर छोड़ दिया और श्रीराम की शरण में चले गए।
यह एक महत्वपूर्ण संदेश देता है—
"सम्मान देना जरूरी है, लेकिन अंधभक्ति नहीं। बड़ों का सम्मान उनके धर्म, नीति और आचरण पर आधारित होना चाहिए।"
बड़ों को सम्मान क्यों जरूरी है
हमारे भारतीय संस्कृति की यह विशेषता रही है कि हम हमेशा अपने बड़ों को, अपने परिवार के मुखिया को देवता के समान स्थान देते हैं।
शास्त्रों में कहा गया है—
> "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।"
(मनुस्मृति)
जिस घर, समाज, परिवार या राष्ट्र में सम्मान और मर्यादा का पालन होता है, वहाँ देवता भी वास करते हैं।
आज आधुनिकता के नाम पर हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं।
बच्चों का अपने माता-पिता से तर्क करना,
युवाओं का बुजुर्गों की बातों को 'पुराना जमाना' कहकर अनसुना कर देना,
या बड़ों की सलाह को ‘रुकावट’ समझना – यह चिंताजनक है।
लेकिन सुंदरकाण्ड हमें सिखाता है कि— “बड़ों का सम्मान केवल मर्यादा नहीं, जीवन की ऊर्जा है। उनके अनुभव, उनकी दृष्टि, हमारे जीवन को दिशा देती है।”
आज के समाज में सुंदरकाण्ड की प्रासंगिकता
जब हम परिवार की बात करते हैं, तो सिर्फ खून का रिश्ता नहीं होता, बल्कि भावनाओं और संस्कारों की डोर होती है।
हममें से हर कोई अपने जीवन में एक ना एक बार किसी ऐसे व्यक्ति से जरूर टकराता है—जो अनुभवी होता है, शांत होता है, और समय के साथ चला होता है। वही हमारे लिए पथप्रदर्शक बन सकता है—अगर हम उसे सुनना चाहें।
आज परिवार में अक्सर यह देखा जाता है कि—
बुजुर्गों को निर्णय प्रक्रिया से अलग कर दिया जाता है,
मुखिया की सलाह को 'Outdated' कहा जाता है,
और युवा खुद को 'सब कुछ जानने वाला' समझते हैं।
जबकि हनुमान जी जैसा ज्ञानी और शक्तिशाली भी विभीषण जैसे सज्जन को आदर से सुनता है, उनके विचार को महत्व देता है।
क्या यह हमारे लिए सीख नहीं है?
संस्कारों की नींव – दोहा और भाव:
"बड़ों की बात लगै भली, सुनिए धीरज धारी।
अनुभव कहे अनमोल है, नींव वही मजबूत भारी।"
यह दोहा केवल शब्द नहीं, जीवन का सूत्र है।
जिस परिवार की नींव अनुभव और आदर पर टिकती है, वह कभी बिखरता नहीं।
भावनात्मक गीतात्मक अंश:
> बड़ों का मान जो रखे, वही जीवन में पाए।
अनुभव का जो दीप जले, वह अंधियारा मिटाए।
हनुमत जैसे हो विनयी, हो विवेक से भरा।
ऐसे मन में श्रीराम का, हरदम वास⁷ करा।
समापन – जीवन सन्देश:
प्रभु श्रीराम ने भी अपने पिता दशरथ जी की आज्ञा मानने के लिए 14 वर्षों का वनवास सहर्ष स्वीकार किया।
विभीषण ने अपने बड़े भाई की अधार्मिक राह को त्यागकर धर्म को चुना।
हनुमान जी ने अपने से श्रेष्ठ विभीषण को सम्मान दिया।
ये प्रसंग हमें सिखाते हैं कि—
"सम्मान देना कमजोरी नहीं, संस्कार है।
और जो अपने बड़ों का मान करता है, वह जीवन में सच्चा वीर होता है।"
आइए, सुंदरकाण्ड से मिली इस सीख को अपने जीवन में उतारें।
अपने माता-पिता, दादा-दादी, और परिवार के मुखिया को समय दें,
उनकी बातों को सुनें, समझें, और उन्हें उचित सम्मान दें।
कड़ी मेहनत, विनम्रता, और मर्यादा के साथ आगे बढ़ें।
क्योंकि अंत में—
"जिस घर में बड़ों का आशीर्वाद होता है, वहां भगवान स्वयं निवास करते हैं।"
"जय श्रीराम!"
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